Tuesday, April 12, 2016

तेवरी-आन्दोलन के प्रथम तेवरी-संग्रह- ‘ अभी जुबां कटी नहीं ‘ की भूमिका - रमेशराज




तेवरी-आन्दोलन के प्रथम तेवरी-संग्रह-
 ‘ अभी जुबां कटी नहीं ‘ की भूमिका

रमेशराज
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   आदि काल से शोषक वर्ग आम आदमी को लूटता, आम की तरह चूसता रहा है और यह शोषण का सिलसिला आज तक जारी है। शोषक वर्ग ने अपने को सुरक्षित रखने, वर्ग
विस्तार करने, अपना प्रभुत्व स्थापित करने, सुविधाएँ ऐशोआराम भोगने, सत्ता छिनने के खतरे से बचने, बाजीगरों की तरह चालाकी के साथ जनता की जेबें कतरने, अपने गोदामों को सोने-चाँदी से भरने, आदमी को नपुंसक, नाकारा, भाग्यवादी बनाने तथा शोषण को स्थायित्व देने के लिये, आम आदमी के खिलाफ एक षड्यन्त्र रचा, जिसका नाम था कथित धर्म, जिसका नाम था कथित ईश्वर।
   इस षड्यन्त्र की नींव पड़ी वैदिक काल में और फिर धीरे-धीरे साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपना प्रभुत्व जमाती चली गयीं। इस शक्तियों ने अपने को और ज्यादा शक्तिशाली बनाने के लिये कथित धर्मग्रन्थों का योजनाबद्ध तरीके से सृजन कराया और उसे जनता को अफीम की तरह चटा दिया, ताकि वह विचारलुंज, भाग्यवादी, अन्धविश्वासी होकर, हाथ पर हाथ रखकर सिर्फ अच्छे दिनों का इन्तजार करती रहे। पूर्वजन्म के पापों का प्रायाश्चित करती रहे। दूसरी तरफ राजा महलों में सुरासुन्दरी का स्वाद चखते रहें। जनता की खून-पसीने की कमाई खजाने में भरते रहें।
   सम्राटों, सामन्तों की काली करतूतों, जनविरोधी  नीतियों, अय्याशियों, साजिशों का पर्दापफाश न हो जाये, इसके लिये उन्होंने तत्कालीन कवियों को राजाश्रय देकर भाटों में तब्दील कर दिया, ताकि वे जनता के सामने सच्चाइयाँ न उगल कर सिर्फ ऐसे साहित्य का सृजन करें, जिससे साम्राज्यवादी शक्तियों को पुष्टिकरण मिले। कवियों की एक पूरी की पूरी जमात कुछ इसी तरह की साजिशों में संलग्न रही। जिसके परिणाम स्वरूप आम आदमी होगा वही राम रचि राखा’, ‘सबहिं नचावत राम गुंसाई’, ‘मेरे तो गिरिधर गोपालजैसे अन्धविश्वासों की अफीम लगातार चाटता चला गया। पूर्वजन्म के पाप की धारणाएँ, दैवीय मान्यताएँ शोषकों को शोषण के लिये खुली छूट देती चली गयीं।
   खैर.. यह बात थी उस समय के साहित्यकारों की। आधुनिक साहित्य की भी लगभग यह स्थिति रही है। कुछेक अपवादों को छोड़कर आज भी साहित्यकार सरकार की जीहूजुरी कर रहे हैं। इनाम पा रहे हैं। पुरस्कारों, उपाधियों  से अलंकृत हो रहे हैं, पाठ्य-पुस्तकों में स्थान पा रहे हैं और ऐसे साहित्य का सृजन कर रहे हैं, जो जनघातक ही नहीं, जनहिंसक भी है।
   जब भी साहित्य सामाजिक संदर्भों, हितों से हटकर या कटकर लिखा जाता है, वह अधिकांशतः सामाजिक अहित ही नहीं करता, सत्ताधारियों, जनविरोधियों की काली करतूतों पर पर्दा भी डालता है। आज की तथाकथित महान कविता के प्रवृत्तकों में चाहे छायावादी युगीन कवि हों या प्रतीकात्मक नयी कविता के जनक, सब के सब सत्ता की थैली के चट्टे-बट्टे रहे हैं, जिन्होंने साफगोई के खतरे न उठाकर सिर्फ पदक बटोरे, जमूरों वाली शैली अपनाकर सत्ता के बाजीगरों की जीहुजूरी की।
   ऐसे साहित्य के साथ-साथ हर युग में एक ऐसे साहित्य का भी सृजन हुआ जो जनहितकारी था। कुसत्ताद्रोही था, जिसमें अभिव्यक्ति के खतरे उठाये गये थे। कबीर’, महाप्राण निराला’, धूमिल’, दिनकर, ‘नागार्जुनआदि-आदि कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ कान्ति की एक अमर मशाल जलाई। उसी मशाल को लेकर हम भी तेवरीके माध्यम से शोषक, जनद्रोही प्रवृत्तियों के खिलाफ एक आन्दोलन, एक जनक्रान्ति, एक संघर्ष की शुरूआत कर रहे हैं। शोषित, सर्वहारा वर्ग के भीतर छुपी हुई विद्रोह की आग को तलाश रहे हैं। आदमी को आदमखोरों के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं।
   इस भूमिका को पढ़ते-पढ़ते पाठक मन पर एक प्रश्न उभरना स्वाभाविक है-‘ आखिर ये तेवरीहै क्या’? इसे समझाने के लिये हम अपनी बात ग़ज़ल से शुरू कर रहे हैं। ग़ज़ल का अर्थ है- ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत। सामान्ती युग में राजा-महाराजाओं को खुश करने के लिये उर्दू शायर ग़ज़लों में औरत के जिस्म की खूबियाँ बखान कर राजमहलों में महफिलों की रौनक बढ़ाया करते थे, अशर्फियाँ बटोरा करते थे। कुल मिलाकर ग़ज़ल एय्याशों के लिए एक मनोरन्जन का साधन थी। साथ ही शायरों की रोजी-रोटी, धन-दौलत लूटने की एक चाटुकारी प्रवृत्ति। कहने का मतलब यह है, इसका आम आदमी की समस्याओं, सामाजिक यथार्थ या जनहित से कोई वास्ता नहीं था। इसी कारण यह विधा नंगी जाँघों के जंगल में भटक कर रह गई, जिसमें सुर्ख गालों पर चुटकियाँ थी। मख्मूर आँखों की मदिरा थी, बाँहों के झूले थे, शोखी थी, नजाकत थी। कुल मिलाकर आदमी को पथभ्रष्ट करने का पूरा साजो-सामान थी ग़ज़ल।
   लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों के भारतीयों पर अत्याचारों, दमन, शोषण, कुशासन ने ग़ज़ल के तेवर बदलने शुरू कर दिये और यही से हुआ तेवरीका जन्म, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ, एक संघर्ष, एक इन्कलाब, एक व्रिदोह, एक जनचेतना की शुरुआत की। क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिलकी कथित ग़ज़लें कुछ इसी प्रकार की थीं, जिनसे तेवरीपन की एक बारूदी बू आती है-
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजू--कातिल में है।।
   इसके बाद तेवरी अनेक हाथों में पलकर बड़ी होती गई। स्व. दुष्यन्त कुमार ने तो आपातकाल में तेवरी के सीने में तिलमिलाते विद्रोह के ज्वालामुखी भर दिये। उसके हाथों में शब्दों के डाइनामाइट थमा दिये।
   तेवरी जन्म के बाद लगातार जवान तो होती गई, लेकिन हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य यह रहा कि इसके नामकरण की आवश्यकता किसी भी कवि ने नहीं महसूसी। पाँच-छह दशक गुमनामी की जीवन जीते-जीते नवें दशक में इसका नामकरण हुआ तेवरी। इस सदर्भ में डॉ. देवराज एवं डॉ. ऋभदेव शर्मा देवराजका नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय माना जा सकता है।
   यह सत्य है कि तेवरी की जननी ग़ज़ल है और इसी कारण इसके बहुत से गुण जैसे छन्द, शिल्प आदि बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। लेकिन यदि सन्तान को भी माँ के नाम से पुकारा जाये, यह कहाँ तक उचित है? या हम अपनी बात यूँ स्पष्ट करें, यदि एक विषभरी शीशी को खाली करके उसमें अमृत भर दिया जाये, मगर उसके ऊपर से विष का लेबल न छुड़ाया जाये, ऐसे में क्या लोग इस अमृत को अमृत का मानसिकता के साथ गले उतार सकेंगे? क्या उन्हें अमृत भी जहर नहीं दिखाई देगा? उत्तर स्पष्ट है-‘हां। कुछ इसी तरह की दुर्गति ग़ज़ल के साथ जुड़ी हुई है। इसी कारण ग़ज़ल और तेवरी की स्पष्ट व अलग-अलग पहचान कराना नितान्त आवश्यक हो गया है।
   तेवरी जिस जमीन पर पैदा हुयी, खड़ी हुयी, बड़ी हुयी-वह खुरदरी, पथरीली, कँटीली, विषमताओं, संत्रास, शोषण, घुटन, कुंठाओं की त्रासद पगडंडियों से भरी हुयी है, जहाँ पक्षियों का शोर सुनायी नहीं देता, नदियाँ कल-कल नहीं करतीं। फूल नहीं खिलते। वसन्त नहीं आता | बल्कि आदमी को खाकी बर्दियाँ बूटों से कुचलती हैं, टोपियाँ माँ-बहिनों की इज्जत पर डाके डालती हैं। बन्दूकें आग उगलती हैं। मजदूर का शोषण होता है। शोषक तोदें फुलाते हैं। मूछों पर ताव देते हैं। सुविधा के नाम पर आदमी की आँतों में भूख की आरी चलती है। तस्करी, राहजनी, लूटा-खसोटी होती है। पर सत्ता के कान पर ऐसी खबरों की जूँ तक नहीं रेंगती। बल्कि विधायक, सांसद स्वयं डकैतों, भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हैं। वसंत के नाम पर झूठे वादों की नागफनी के जंगल में भरमाते हैं। खुशबू के नाम पर सडाँध दे जाते हैं।
   तेवरी इस जमीन पर खड़ी होकर आदमी के खिलाफ हो रही साजिशों से आँखें नहीं मूँदती। यातनाओं, अत्याचारों, त्रासदियों, हादसों से भरे रास्तों से कतरा कर नहीं चलती। बल्कि वह जंगलों को काटती-छाँटती हुयी आगे बढ़ती है। शोषक प्रवृत्तियों के खिलाफ जनचेतना लाती है। संघर्ष की बात कहती है। देखा जाये तो तेवरी आदमी की जि़न्दगी में घुली तल्खियत का एक ऐसा ब्यौरा है, जो पढ़ने या सुनने के बाद विचार और चिंतन के ऐसे बिन्दु पर ले जाता है, जहाँ से साजिशियों के खिलाफ आक्रोश की कुल्हाडि़याँ उछालना आवश्यक हो जाता है।
   जबकि ग़ज़ल आरम्भ से लेकर अब तक मात्र एय्यायाशों, सामन्तों को खुश या पुष्ट करती रही है। अपना खूबसूरत जिस्म दिखाकर रिझाती रही है। काँच की हवेलियों में पायल खनकाती रही है। उसने कभी भी फुटपाथ पर झौंपड़ी की जि़न्दगी की तरफ झाँककर नहीं देखा और अगर वहाँ आयी भी है तो नंगी जाँघों का भूगोल पढ़ा गयी है। यही वजह है, तेवरी अपनी माँ ग़ज़ल से व्यवहार से लेकर चालचलन तक एक दम भिन्न है। उसके एक-एक शब्द में चाकू जैसी मार है। अन्धविश्वासों, सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों, रूढि़यों, कुआस्था, गन्दी राजनीतिक चालों के खिलाफ आक्रोश है, विद्रोह है, आक्रामकता है, बारुद जैसा विस्पफोटक है, ब्लैड जैसी धार है, जो तन मन को आन्दोलित करती चली जाती है।
   तेवरी गुस्सैल, आक्रामक, जुझारू, संघर्षशील अवश्य है, लेकिन वह अनुशासनप्रिय है और ऐसा कोई रास्ता अख्तियार नहीं करती, जो गलत हो, भ्रामक हो, विध्वंसक हो। तेवरी व्यर्थ का रक्तपात भी नहीं चाहती है। वह आदमी के लिये सुख-सुविधा माँगती है। जर्द चेहरों की खुशहाली चाहती है, भूखे को रोटी की माँग करती है, ठन्डाये चूल्हे को आग, दाल-भात माँगती है। लेकिन इसके लिये सरकारी सम्पत्ति का विनाश नहीं करवाना चाहती, बसें नहीं तुड़वाना चाहती। तेवरी लड़ाई तो लड़ती है, क्रान्ति तो करती है लेकिन हक की, शांति की, अहिंसा की। वह गुस्से को सार्थक सृजन में लगाती है, आदमी को आदमी बनाती है।
   आज जबकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक भयंकर उथल-पुथल शुरू हो गयी है। शोषक और शोषित का एक तीखा वर्गसंघर्ष संक्रामक रोग की तरह पनप रहा है, स्थापितों और विस्थापितों के राजनीतिक हथकंडे आदमी को एक तल्खियत से सराबोर कर रहे हैं। आदमी कुंठा, घुटन, संत्रास उत्पीड़न से पनपे आक्रोश को अपने भीतर कोढ़-सा महसूस रहा है। एक सडाँधभरी व्यवस्था में हम सब जिये चले जा रहे हैं। एक दिशाहीनता हम सब पर हावी होती चली जा रही है। नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मूल्य टूट रहे हैं। आदमी को पूर्वजों से विरासत में मिले धार्मिक अंधविश्वास धर्म के ठेकेदारों के लिये शोषण, तस्करी, लूटाखसोटी के साधन बने हुये हैं। ईश्वर के नाम पर चकले चल रहे हैं। भ्रष्टाचार हो रहा है। शासक जनद्रोही हो गये हैं। समाजवाद की अच्छीखासी घोषणाओं के बावजूद आज़ादी के इन विगत सालों में समाजवाद न आ सका, जन खुशहाली न आ सकी। आजादी का अर्थ सिर्फ नौकरशाहों, भ्रष्टाचारियों, नेताओं के टुच्चे भाषण देने, जनता का पैसा डकारने, जनविरोधी विधेयक लाने, साम्प्रदायिक दंगे भड़काने, पुलिस द्वारा महिलाओं की इज्जत लूटने-लुटवाने, लाठीचार्ज कराने, तस्करी करने, गरीबी उन्मूलन के नारे देकर पूंजीवाद को बढ़ावा देने, कालाधन कमाने और कमवाने की आज़ादी बनकर रह गया, जिससे न सिर्फ सामाजिक मूल्य टूटे हैं, बल्कि वीभत्स-घिनौने होते चले गये। स्वार्थों के कुंड में स्वाहा होते चले गये। आदमी, आदमी न रहकर शैतान बन गया। ऐसे में प्रस्तुत संग्रह अभी जुबां कटी नहींके तेवरीकारों की तेवरियाँ जनविरोधी प्रवृत्तियों को बेनकाब ही नहीं करेंगी, उन्हें चौराहे पर घसीट कर उनकी असलियत भी खोलेंगी, साथ ही पाठकवर्ग को उनकी त्रासद स्थितियों से साक्षात्कार कराते हुये किसी हल की ओर मोड़ेंगी, ऐसा विश्वास है।

 [ तेवरी-संग्रह अभी जुबां कटी नहींकी भूमिका ]

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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

तेवरी-आन्दोलन के दूसरे तेवरी-संग्रह- ‘ इतिहास घायल है ‘ की भूमिका +रमेशराज





तेवरी-आन्दोलन के दूसरे तेवरी-संग्रह-
 ‘ इतिहास घायल है ‘ की भूमिका

+रमेशराज
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  यदि सामाजिक-परिवर्तन या घटनाक्रम को यथार्थवादी दृष्टिकोणों से जोड़कर मूल्यांकित किया जाये तो इतिहास के उस नेपथ्य की भी जानकारी होने लगती है, जहाँ जन-सेवी या समाजवादी व्यक्तित्व बदसूरत ही नहीं लगते, बल्कि एक ऐसे कुकृत्य में लिप्त पाये जाते हैं, जिसे जन-द्रोहिता कहा जाता है। इस संदर्भ में यदि हम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और उसके बाद के इतिहास के नेपथ्य का अवलोकन करें तो पायेंगे कि अराजकता, शोषण और अन्याय के विरुद्ध  आवाज उठाने वाले ही अनेक व्यक्तियों ने नेपथ्य से आम आदमी की पीठ में एक ऐसा छुरा घोंपा, जो दिखायी तो नहीं दिया किन्तु उसकी मार इतनी तीखी और विशाल थी कि उससे अप्रभावित हुए बिना कोई भी नहीं रह सका। शान्ति और अहिंसा के पुजारियों ने समूची मानवता की हिंसा की।
   कमाल तो यह है कि नेपथ्य के षड्यंत्रकारी जब मंच पर हावी हुए तो उन्होंने मंच से सही और ईमानदार नेतृत्वकर्ताओं को धक्का ही नहीं दिया बल्कि उन्हें एक ऐसी स्थिति में लाकर पटक दिया जहाँ से उनकी आवाज एक पागलपन समझी जाने लगी। ऐसी त्रासद स्थितियाँ हमारे उन क्रान्तिकारियों ने भोगीं जो सच्चे अर्थों में जनता के हितैषी थे। ऐसे लोगों को उग्रवादी करार देने वाले वही लोग थे जो अंग्रेजों और भारतीय पूँजीपतियों के बीच दलालों की भूमिका निभा रहे थे। उसी दलाली के फलस्वरूप भारत में स्वतन्त्रता आम वर्ग को न मिलकर एक ऐसे वर्ग को मिली जिसका उद्देश्य शान्ति और अहिंसा के थोथे नारों के बल पर सत्ता हथियाना ही नहीं बल्कि जन सामान्य के मुँह का दाना और तन का कपड़ा छीनकर चन्द लोगों की सुख-सुविधा  का साधन बनाना था। देश को एक ऐसी अराजक और भ्रष्ट अवस्था में ले जाना था, जिसमें खास वर्ग की तरह सामान्य वर्ग का भी इतना चारित्रिक पतन हो जाये कि कोई किसी पर अँगुली न उठा सके। चोर-चोर मौसेरे भाईकी परम्परा स्वतन्त्रता के बाद जन-सामान्य में इतनी फली-फूली कि शोषक और शोषित में अन्तर करना उतना ही मुश्किल हो गया है जितना कि इतिहास के नेपथ्य को समझना।
   भारतीय स्वतन्त्रता के बाद जिन नेताओं ने भारत का नेतृत्व सम्हाला, उन्होंने लोकतन्त्र का इस्तेमाल लोकहित में न करके, सत्ता और नौकरशाही प्रवृत्तियों के नरभझी पौधों  को पालने-पोसने में किया। परिणामस्वरूप समूची तंत्र-व्यवस्था शोषक, आदमखोर, अत्याचारी होती चली गयी।
   शासक वर्ग ने सत्ता-स्थायित्व, अहंतुष्टि और कोरी वाहवाही लूटने के लिये ऐसे हथकन्डे अपनाने शुरू किये जो आम जनता को असहाय, पीडि़त और दरिद्र बनाने के साथ-साथ चरित्रहीनता की ओर धकेलते चले गये। सुविधा  और विलासता की ललक के शिकार लोग अपनी स्वार्थ-पूति के लिये देश के साथ साम्प्रदायिकता, अलगाव, तस्करी, डकैती, बलात्कार, संगठित विद्रोह और भ्रष्टता की बेहूदी भूमिका निभाने लगे। उनकी इन करतूतों पर कोई उँगली न उठा सके, इसके लिये उन्होंने गांधीवाद का सहारा लिया। भारत के इतिहास में जिस तरह के व्यभिचार की जडे़ं धर्म  के नाम पर पनपीं, ठीक उसी तरह का व्यभिचार गांधी के नाम पर विकसित हुआ।
   शाषक वर्ग ने शिक्षा की उन्नति से धार्मिक अन्ध विश्वासों के पतन को देखते हुए जनता की मानसिकता को पुनः लुंज और गुमराह करने के लिये अपरोक्ष रूप से हिंसा और सेक्स प्रधान फिल्मों तथा घटिया उपन्यासों और अपराध् कथाओं को बढ़ावा इसलिये दिया ताकि आदमी सत्ता की करतूतों पर केन्द्रित होकर व्यवस्था परिवर्तन की माँग की रट लगाने के बजाय समाज के उन अंगों पर ही प्रहार करे जो उसके अपने हैं, क्योंकि शासक वर्ग को आजादी के बाद सबसे बड़ा खतरा जन-समर्थक पत्रकारिता और साहित्य से ही दिखाई दिया, जो गलत राजनीति की ओर संकेत-भर ही नहीं, बल्कि समाजवादी मान्यताओं को स्थापित करने के लिये एक संकल्प भी था, या है।
   जनसमर्थक साहित्य के समानान्तर अश्लील साहित्य को स्थापित करने की साजिश के परिणामस्वरूप सामाजिक मूल्य और लगाव में कमी ही नहीं आयी बल्कि सेक्स, हिंसा, बलात्कार, व्यभिचार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी होने लगी। समाज सोचके धरातल पर अपने स्वार्थों की अंधी दौड़ में एक दूसरे को टंगी मारकर आगे बढ़ने लगा। दूसरी तरफ सत्ता का अपराधीकरण इसलिये किया गया ताकि गुण्डा-संस्कृति के बल पर आतंक और भय फैलाकर सत्ता को सुरक्षित रखा जा सके। कुल मिलाकर आज हमारा देश इस स्थिति में आ पहुँचा है कि गुण्डा-संस्कृति के बीच न तो जनता सुरक्षित है और न कोई राजनेता।
   ऐसे में प्रस्तुत तेवरी संग्रह इतिहास घायल हैयदि शासक वर्ग के नेपथ्य को नंगा करने तथा समाजघाती तिलिस्मों को तोड़ने में थोड़ा बहुत भी सहायक होता है तो निस्संदेह यह हमारी उन मान्यताओं की सफलता रहेगी जो अन्ततः मानवीय मूल्यों से जुड़ती है।

[ इतिहास घायल हैतेवरी-संग्रह की भूमिका ]
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

तेवरी-आन्दोलन के तीसरे तेवरी-संग्रह- ‘ कबीर ज़िन्दा है ‘ की भूमिका +रमेशराज





तेवरी-आन्दोलन के तीसरे तेवरी-संग्रह-
 ‘ कबीर ज़िन्दा है ‘ की भूमिका

+रमेशराज
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   इतिहास गवाह है कविता का जब भी शोषक, जनविरोधी  शक्तियों के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल हुआ है, भाषा में बारूद भरी गयी है तो उससे आदमखोरों के भीतर गुर्राता हुआ भेडि़यापन शब्दों की गोलियों से छलनी होकर सरे-आम दम तोड़ने लगा है।
   इतिहास गवाह है, कविता जब-जब भी सामाजिक यथार्थ से कतराकर चली है, ईश्वर और मोक्ष के छद्मता से भरे रास्तों पर अध्यात्म के जंगल में भटकी है या एक अजीब स्वप्नलोक में विचरी है, तब-तब आम जनता की गर्दन पर पूँजीवादी ढाँचे के शोषण की तलवारें भरभरा कर टूटी हैं।
   इतिहास गवाह है, कथित भारतीय स्वतन्त्रता के विगत वर्षों में पूँजीवादी शोषक व्यवस्था ने जिस तरह अपनी जड़ें जमायी हैं, गलत और भ्रष्ट मूल्यों ने आदमी के चरित्र में जिस तरह घुसपैंठ की है, धर्म, सुधार, योजना-परियोजना के नाम पर जिस तरह साजिशियों ने एक धोखे-भरा खेल खेला है, सत्ताधारी बहेलियों ने आपातकाल के दौरान जिस तरह अनुशासन, देशहित के कार्यक्रम के सब्जबाग दिखाकर जनतन्त्र की हत्या की है, उस कटुयार्थ को कविता ने देखा ही नहीं, भोगा ही नहीं, अपने सीने पर तलवार की तरह झेला भी है। यही कारण है कि स्वतन्त्रता के बाद कविता जझारू, संघर्षशील, आक्रामक होती चली गयी। उसमें एक ऐसी वैचारिक उग्रता भर गयी है, जिसमें इस कुव्यवस्था के खिलाफ कुछ कर गुजरने की ललक है।
   तेवरी समकालीन कविता का एक ऐसा ही काव्य-रूप है, जिसके एक-एक तेवर में शोषितवर्ग की पूँजीवादी, सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ सक्रिय मोर्चेबन्दी है।
   तेवरी ने समकालीन व्यवस्था से संत्रस्त पात्रों की क्षोभातुर भावनाओं को रोमांसवादी तरीकों से बहलाकर शांत करने की कोशिश नहीं की, बल्कि उन्हें आक्रोश, एक आंदोलन, एक संघर्ष की मुद्रा में बदलने का प्रयास किया है।
   तेवरी भयंकर हताशा के घटाटोप अंधेरे के बीच मजदूर के हाथ में लगी हुई लालटेन की तरह हमारे बीच आयी है, जिससे सही मार्ग की ओर कदम बढ़ सकें।
   तेवरी मखमली गद्दों, आलीशान कोठियों से ऊब रही कविता को एक ऐसी बस्ती में ले आयी है, जहाँ कड़वे अनुभवों के इर्दगिर्द जीने की विवशता है। चेहरे की हँसी के पीछे दुःखद अर्थों की भरमार है।
   तेवरी भूख, गरीबी, दमन, अन्याय के प्रति चुप्पी साधे  हुए लोगों को उनके अधिकारों की खातिर लड़ाई लड़े जाने के लिए पुकारती ही नहीं, उन्हें एक ऐसे सोच के धरातल पर भी एकत्रित करती है, जहाँ आदमखोरों के चेहरे से आदर्शवादिता, जनसेवा, मानवता के घिनौने नकाब प्याज के छिलकों की तरह उचलने लगते हैं।
   तेवरी पूँजीवादी व्यवस्था के पिंजरे में कैद शोषित वर्ग के सपनों को मुक्त कराने के लिये शब्दों का आरी की तरह इस्तेमाल करती है ताकि आम आदमी शोषण-मुक्त आकाश के तले चैन की साँस ले सके।
   तेवरी अत्याचारियों को घेरे हुए भीड़ के बीच गुस्से से तनी हुई एक ऐसी मुट्ठी है जिसके भीतर यातना व अन्यायमुक्त समाज के सुखद संकेतों की शुरुआत है।
   तेवरी खोखली और बुर्जुआ मानसिकता की किलेबन्दी तोड़ने के लिये जूझती है, थकती है, टूटती है, लेकिन लगातार प्रहार करती है।
   तेवरी धर्म की अफीम में धुत पड़े हुए समाज की लुंज आत्मा में साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा थोपे गये अन्ध विश्वासों को जड़ से उखाड़ कर फैंक देने के लिये हल की तरह भीतर तक धंसती है और यथार्थ की जमीन को उर्वरा बनाकर उसमें सही मूल्यों, संस्कारों, संस्कृति के बीज बोती है।
   तेवरी गालिब, मजाज, दाग, मीर आदि की ग़ज़लों की तरह अपने आस-पास के परिवेश से अनभिज्ञ कलात्मक सुरुचियों की पहचान नहीं बनाती। वह तो कबीर की कविता की तरह आम आदमी के घर-घर यात्रा करती है। उसके दुःख-दर्द में सहभोगा बनती है। हर स्तर पर पराजय का मुँह देखने वाली जनता को संघर्ष लड़ाई और क्रान्ति के लिये प्रेरित करती है। तेवरी संग्रह ‘‘कबीर जि़दा हैकी तेवरियां कुछ इसी प्रकार की हैं।

[ कबीर जि़ंदा हैतेवरी-संग्रह की भूमिका ]
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001
मो.-9634551630  

Friday, April 1, 2016

तेवरी आन्दोलन के प्रमुख चार तेवरी-संग्रह +मदनमोहन ‘उपेन्द्र’

 तेवरी आन्दोलन के प्रमुख चार तेवरी-संग्रह 

 +मदनमोहन उपेन्द्र
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    यों लगभग एक दशक से यत्र-तत्र पत्र-पत्रिकाओं में तेवरी के विषय में हल्की जानकारी होती रही है और विगत दिनों बाबा नागार्जुन के सम्मान में आयोजित गोष्ठी में कोटद्वार प्रवास के दौरान तेवरी के पुरोधा  डॉ . देवराज से भी मिलने का अवसर मिला और इस विषय में हल्की-फुल्की चर्चा भी हुई। और मुझे सदैव ऐसा ही लगा कि प्रगतिशील कविता, जनवादी कविता या शोषित-पीडि़त के लिए समर्पित कविता के आस-पास तेवरीकी कविताएँ अपना पड़ाव डाले नजर आती हैं।
जब मुझे अलीगढ़ आकर तेवरी के युवा कवियों के बीच बैठने का अवसर मिला और अलीगढ़ में इस कविता आन्दोलन के केंद्रबिन्दु श्री रमेशराज से चर्चा हुई तो ऐसा लगा कि तेवरी-कविताओं में जो दर्द, अकुलाहट, आग, आन्दोलन समाहित है, वह अवश्य कुछ नया कर गुजरने की क्षमता रखता है।
जब मुझे तेवरीके कविता-संग्रह या यूं कहना चाहिये कि तेवरी-संग्रह पढ़ने को मिले तो उभरते हुये युवा कवियों में मुझे अभूतपूर्व संभावनाएँ परिलक्षित हुईं। इसीलिये इन तेवरी-संग्रहों की चर्चा करना यहाँ पर समीचीन होगा। यों तेवरी-पक्षएक त्रौमासिक पत्रिका भी प्रकाशित होती रही है। किन्तु संग्रहउससे पृथक अपना स्थायी महत्व रखते हैं।
चर्चा क्रम में सर्वप्रथम फरवरी-83 में प्रकाशित अभी जुबां कटी नहींप्रस्तुत है- इस संग्रह में छः युवा कवियों की तेवरियाँ अपने नये अन्दाज में प्रस्तुत की गई हैं। इससे पूर्व पाठक रचनाओं तक पहुंचें, युवा सम्पादक-रमेशराज ने सम्पादकीय के माध्यम से व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते हुये तेवरीआन्दोलन की पृष्ठभूमि भी प्रस्तुत की है। तुलसी, विद्यापति, बिहारी, कालीदास और अज्ञेय की अपेक्षा अपने को कबीर, निराला, मुक्तिबोध, धूमिल और नागार्जुन से अधिक  जुड़ा हुआ महसूस किया है, तेवरी की इस युवा पीढ़ी ने।
यों तेवरी शब्द तेवर का ही परिवर्तित रूप है, जिसका अर्थ है तासीर, गर्माहट आदि। किन्तु उसे एक आन्दोलन का रूप देकर रोमानियत की ग़ज़ल से पृथक गर्माहट का रूप मान लिया गया है। इस नाम को सृजित करने में डॉ. देवराज विशेष रूप से धन्यवाद के पात्र हैं।

तेवरी-संग्रह अभी ज़ुबां कटी नहीं
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सर्वप्रथम अभी जुबां कटी नहींके कवियों में सर्वश्री अरुण लहरी, अजय अंचल, योगेन्द्र शर्मा की बानगियाँ प्रस्तुत हैं-
भ्रष्टाचार धर्म  है उनका
दुर्व्यवहार  धर्म  है उनका।।
बेच रहे है वे सौगंधें
अब व्यापार धर्म उनका।।
    अरुण लहरी की उक्त पंक्तियों में वर्तमान व्यवस्था की पतनोन्मुखी पराकाष्ठा का कितना सजीव चित्रण हुआ है।
    अजय अंचलको लग रहा है कि सारी शैतानी की जड़ कुर्सियाँ हैं, तभी तो वे लिखते हैं-
कुर्सियाँ सिखला रही हैं आदमी को देखिए
हर कदम पर इक नया व्यभिचार कोई क्या करे।।
तेवरीकर योगेन्द्र शर्मा यहाँ तक कहने को विवश हैं-
वही छिनरे, वही डोली के संग हैं प्यारे।
देख ले ये सियासत के रंग हैं प्यारे।।
श्री सुरेश त्रस्त, ज्ञानेन्द्र साज और रमेशराज भी संग्रह के अग्रिम कवि हैं । श्री सुरेश त्रस्त ने अपनी रचनाओं में लोकधुन को जीवित करने का प्रयास किया है-
दलदल में है गाड़ी बहिना
गाड़ीवान अनाड़ी बहिना।।
जीना है दुश्वार सखी री
होते अत्याचार सखी री।।
श्री रमेशराज ने अपनी लंबी 50 तेवरों की रचना के माध्यम से लोगों में आग उतारने, जोश भरने और जुझारूपन जुटाने पर प्रयास किया है। कुछ पंक्तियाँ बड़ी सशक्त बन पड़ी हैं -
अब हंगामा मचा लेखनी
कोई करतब दिखा लेखनी।।
गोबरशोषण सहते-सहते
नक्सलवादी बना लेखनी।।
महाजनों को देता गाली
अब के होरीमिला लेखनी।।
अब टूटे हर इक सन्नाटा
ऐसी बातें उठा लेखनी।।
सम्पूर्ण रूप से अभी जुबाँ कटी नहींसंग्रह की रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि लेखकों की वह कतार अभी मिटी नहीं है, जिनकी जुबां में एक नया तेवर-नयी ताजगी मौजूद है। इसीलिये एक संग्रह का नाम सार्थक है कि यथार्थ लेखक वंश की अभी जुबाँ कटी नहीं है।

तेवरी-संग्रह कबीर जि़न्दा है
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तेवरी का दूसरा संग्रह कबीर जि़न्दा हैभी अपने तेवर में पिछले संग्रह से किसी भी प्रकार कमजोर नहीं कहा जा सकता। सम्पादकीय पृष्ठभूमि में भाई रमेशराज लिखते हैं कि जब भी कविता सामाजिक यथार्थ के कतराकर चली है, तब-तब आम जनता की गर्दन पर पूँजीवादी ढाँचे के शोषण की तलवारें भरभराकर टूटी हैं। तेवरी एक आक्रोश, एक आन्दोलन के द्वारा व्यवस्था बदलाव का प्रयास है। अँधेरे के बीच मजदूर के पास एक लालटेन-सा है।'
तेवरी के कवियों के बीच में गालिब, मीर, मजाज, दाग, अज्ञेय, तुलसी, सूर की अपेक्षा कबीर साक्षात् अंतर्मन में बोलता नजर आता है। इस संग्रह में नये-पुराने तेइस कवियों की आग उगलती तेवरियाँ प्रस्तुत हुई हैं। राजेश महरोत्रा की कुछ पंक्तियाँ कितना सार्थक बयान प्रस्तुत करती हैं-
1.   नदी किनारे तड़प रही मछली बेचारी
 पानी से भर मरुथल देंगे बातें झूठी।।
2.   तीन बीघे खेत में इतनी फसल पैदा हुई
 चार दाने घर को आए शेष जाने क्या हुई।।
गिरि मोहन गुरुकी इन पंक्तियों में व्यंग्य की बानगी देखिए-
वैसे तो बिच्छुओं की तरह काटते हैं ये
अटकी पै मगर तलवा तलक चाटते हैं ये।।
डॉ. देवराज की गर्मागर्म तेवरी तेजी से प्रहार करती नजर आती है-
हमारे पूर्वजों को आपने ओढ़ा-बिछाया है।
कफन तक नोच डाला लाश को नंगा लिटाया है।।
जमाखोरों कुशल चाहो अगर तो ध्यान से सुन लो।
निकालो अन्न निर्धन का जहाँ तुमने छुपाया है।
श्याम बिहारी श्यामल-‘आँख-आँख में लाल ख्वाब चाहिए, देश को फिर इन्क़लाब चाहियेकहकर कविता के प्रयोजन को व्यक्त करते हैं।
विक्रम सोनी भी व्यवस्था दोष की आम बात यूँ बयां करते हैं-
बिक रहा है आजकल ईमान भी
जि़न्दगी का हर हँसी उपमान भी।
ये व्यवस्था है गूँगी कोयल
इसको अब कूक की जरूरत है।।
    ‘गूँगी कोयलसर्वदा नया प्रतीक प्रयोग किया गया है। इसके लिये कवि बधाई का पात्र हैं ।
जगदीश श्रीवास्तव ने निम्न पंक्तियों में आज़ादी का नंगा यथार्थ व शोषित वर्ग के प्रति संवेदनशीलता व्यक्त की है-
सारी उमर हुई चपरासी, चुप बैठा है गंगाराम।
चेहरे पर छा गई उदासी, चुप बैठा है गंगाराम।
सुरेश त्रस्त की रचना में भी व्यवस्था पर ऐसी ही चोट करती बानगी प्रस्तुत हुई है-
हाथ जोड़कर महाजनों के पास खड़ा है होरीराम।
ऋण की अपने मन में लेकर आस खड़ा है होरीराम।।
रमेशराज की पंक्तियों में लगातार आक्रोश की ज्वाला सदैव जलती नजर आती है-
बस्ती-बस्ती मिल रहे अब भिन्नाये लोग।
सीने में आक्रोश की आग छुपाए लोग।।
रोजी-रोटी दे हमें या तो ये सरकार।
वर्ना हम हो जाएँगे गुस्सैले खूंख्वार।।
इसके अतिरिक्त और भी रचनाएँ इस संग्रह में अच्छी बन पड़ी हैं। संग्रह को पढ़कर ऐसा अवश्य लगता है कि आज के युवा कवियों के अंतर्मन में  आज भी किसी न किसी रूप में  कबीरअवश्य जीवित है।

तेवरी संग्रह- इतिहास घायल है’ 
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संग्रह इतिहास घायल है’ फरवरी-85 में प्रकाशित तेवरी का तृतीय पुण्प है, जिसकी सम्पादकीय में बन्धुवर रमेशराज ने व्यवस्था के षड्यंत्रकारी स्वरूप को प्रस्तुत कर उसके द्वारा इतिहास को घायल करने वाले षड्यन्त्र को बे-नकाब किया है, जिसमें तेवरी के युवा कवि अपने जुझारूपन से संलग्न हैं।
 तेवरी-संग्रह इतिहास घायल है-----

यद्यपि यह संग्रह पिछले संग्रहों से बाद में प्रकाशित हुआ है, किन्तु यह उनकी अपेक्षा और ओज-भरा  नजर पड़ता है। इसमें सर्वश्री गजेन्द्र बेबस, दर्शन बेज़ार, विजयपाल सिंह, अनिल कुमार अनल’, अरुण लहरी, सुरेश त्रस्त, गिरीश गौरव, योगेन्द्र शर्मा और रमेशराज की नूतन तेवरियाँ प्रस्तुत हुई हैं।
इस संग्रह की रचनाओं में तेवर ताजगी और आक्रोश लगभग वैसा ही है जो पिछले संग्रहों में देखने को मिला। व्यवस्था-विरोध, शोषित की बेबसी, सरकार की अकर्मण्यता, गरीबी, मजबूरी, भगवान, ईमान, सियासी चलन ठीक उसी रूप में प्रस्तुत हुए हैं जो लगातार पिछले संग्रहों में नजर आते रहे हैं।
उदाहरण के लिए दो-चार बानगियाँ देना ही पर्याप्त होगा-
अब कलम तलवार होने दीजिए।
दर्द को अंगार होने दीजिए।।
आदमीयत के लिए जो लड़ रहा।
मत उसे बेजार होने दीजिए।।
[दर्शन बेज़ार]
लोग खंडि़त हो रहे हैं एकता के नाम पर।
रक्तरंजित हो रहे हैं एकता के नाम पर।।
[गिरीश गौरव]
जब कोई थैली पाते हैं जनसेवकजी।
कितने गद्गद हो जाते हैं जनसेवकजी।।
[रमेशराज]
तेवरी-संग्रह इतिहास घायल है पढ़कर निश्चय ही यह एहसास होता है कि आज के जनसेवकों ने इतिहास को बुरी तरह घायल कर दिया है।
   

तेवरी संग्रह ‘एक प्रहारः लगातार 
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अन्तिम क्रम में मेरे सामने सार्थक सृजन द्वारा प्रस्तुत कविवर दर्शन बेज़ार का प्रथम तेवरी-संग्रह है। यांत्रिक अभियन्ता होते हुए भी कवि बेज़ार ने जितनी तल्ख और तेजतर्रार तेवरियाँ लिखी हैं, वे निश्चित रूप से बधाई योग्य हैं।  अधिक कुछ न कहकर उनकी कुछ बानगियाँ प्रस्तुत करके एक प्रहारः लगातारको पाठकों से बार-बार पढ़ने और मनन करने का आग्रह करूँगा।
तेवरी-संग्रहएक प्रहारः लगातार की रचनाओं में नई पीढ़ी को नये सृजन की महती प्रेरणा प्राप्त होगी-
फिर यहाँ जयचन्द पैदा हो गये।
मीरजाफर जिन पै शैदा हो गये।।
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पुरस्कारहित बिकी कलम अब क्या होगा।
भाटों की है जेब गरम, अब क्या होगा।।
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जिस हवेली को रियाया टेकती मत्था रही।
वह हवेली जिस्म के व्यापार का अड्डा रही।।
इस प्रकार निर्विवाद रूप से कवि बेजार का संग्रह एक प्रहारः लगातारव्यवस्था पर लगातार प्रहार करने का सार्थक हथियार है, जो युवा पीढ़ी को और भी तीखा प्रहार करने की प्रेरणा देता रहेगा।

तेवरी-आन्दोलन के अधिकांश संग्रह क्रमशः अमर क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल’, मन्मथनाथ गुप्त, अशफाकउल्ला खां और सरदार भगत सिंह को समर्पित हुए हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि तेवरी के युवा कवि क्रान्तिकारी चिन्तन एवं सृजन को प्रतिबद्ध हैं। सम्पूर्ण रूप में इस आन्दोलनात्मक सृजन क्रम और प्रस्तुतिकरण के लिये भाई-रमेशराज और सार्थक सृजन प्रकाशन बधाई के पात्र हैं।