Wednesday, July 20, 2016

'घड़ा पाप का भर रहा' पर दो विद्वानों के मत


“ घड़ा पाप का भर रहा “ अभिनंदनीय 

+डॉ. उमा पांडेय
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“ घड़ा पाप का भर रहा “ तेवरीसंग्रह शास्त्रविधि से परम्परा का पालन करते हुए रचा गया है जिसमे सर्वजन हिताय की भावना सर्वोपरि है , इसीलिए यह कृति अभिनंदनीय है |

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'घड़ा पाप का भर रहा' पर एक प्रतिक्रिया यह भी  --------------------------------


“ घड़ा पाप का भर रहा “, फूटेगा हर हाल
अब कीचड़ में मित्रवर खिलता नहीं गुलाब ||
+हस्तीमल हस्ती 


Friday, July 8, 2016

‘ दे लंका में आग ’ एक अनुपम तेवर-शतक +विश्वप्रताप भारती




‘ दे लंका में आग ’ एक अनुपम तेवर-शतक

+विश्वप्रताप भारती
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तेवरीकार-रमेशराज, सार्थक-सृजन प्रकाशन, ईसानगर, निकट-थाना सासनी गेट, अलीगढ़ [उ.प्र.]
    अलीगढ़ के बहुचर्चित कवि रमेशराज की तेवरी का संग्रह है-दे लंका में आग। यह एक लघु पुस्तिका है जिसमें एक लम्बी तेवरी है, जिसे तेवर-शतकनाम दिया गया है। इसके पूर्व उन्होंने अभी जुबां कटी नहीं’, ‘कबीर जिन्दा है’, ‘इतिहास घायल है’, ‘एक प्रहारः लगातार’ तेवरी-संकलनों तथा तेवरीपक्ष त्रैमा. का संपादन किया है तथा विचार और रस’, ‘विरोधरस’, ‘राष्ट्रीय बाल कविताएंनामक पुस्तकों के रचयिता हैं।
    कवि रमेशराज में कर्तव्यबोध पूरा-पूरा पाया जाता है। उन्होंने कविता को चुना है। समाज से जुड़कर लिखा है। कवि की घुटन, वेदना, सारे समाज की वेदना है। खासकर पीडि़त समाज की। यही बात वह अपने समकालीन कवियों से भी कहते हैं। उनकी छटपटाहट एवं पीड़ा का आत्मसंघर्ष उनके इस तेवरी-शतक में बखूबी दिखता है-
    सिस्टम आदमखोर, जिन्दगी दूभर है,
    कविता को हथियार बना तू लांगुरिया, गाल छर असुरों के |
    असुरों के आगे विनती में हर स्वर है
    क्रान्ति भरे फिर भाव जगा तू लांगुरिया, गाल छर असुरों के |
    कवि रमेशराज के लिए कविता की साधना एक निरन्तर का आत्मसंघर्ष है। अपनी कमजोरियों को जानकर कवि उत्साहित होता है। कवि का आत्मसंघर्ष सामान्य व्यक्ति के संघर्ष की ओर संकेत करता है, जिसको करते हुए भी कुछ प्राप्त नहीं कर पा रहा है। पर वह इस संघर्ष की सफलता देखना चाहता है। कवि कहता है-
    मुझमें-तुझमें बस इतना ही अन्तर है
    मैं माचिस, बारूद बना तू लांगुरिया, गाल छर असुरों के |
    जल्लादों की छुरी हमारे सर पर है
    बड़े बुरे हैं हाल, बचा तू लांगुरिया, गाल छर असुरों के |
    कवि ने राजनीतिक लक्ष्य भी इस तेवरी-शतक में कलात्मक ढंग से रूपायित किया है-
    डाका अबकी बार हमारे हक पर है
    दिल्ली को यह बात बता तू लांगुरिया, गाल छर असुरों के |
    देश लूटता धनिक, सांसद, अफसर है
    अब भारी आक्रोश जता तू लांगुरिया, गाल छर असुरों के |
    रमेशजी की शैली में शब्दचित्र खींचने की अनोखी शक्ति दिखाई देती है। इसके माध्यम से उन्होंने भावों और विचारों को मूर्त्तरूप प्रदान किया है। पढ़ते समय नेत्रों के सामने घटना घटित होती-सी दिखाई ढेती है। जैसे-
    बस चीखों को लादे गया दिसम्बर है,
    नया साल खुशहाल बना तू लांगुरिया, गाल छर असुरों के |
    धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर देश को बांटने वालों से सावधान करना, भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकना रमेशराज की तेवरियों का मुख्य स्वर है। सभी तेवर संदेश देते हैं एवं हर दृष्टि से उपदेशक हैं-
    वो जीतेगा जिसकी चोट निरंतर है
    वही पुराने हाथ दिखा तू लांगुरिया, गाल छर असुरों के |
    सही चोट करने का ये ही अवसर है
    घन को भरकर जोश उठा तू लांगुरिया, गाल छर असुरों के |
    हिन्दी काव्य जगत की नई विधा तेवरीतेवरीकार रमेशराज के संघर्ष से आगे बढ़ रही है लेकिन अभी तेवरी संग्रहों की संख्या कम है। यदि राष्ट्रीय स्तर पर तेवरीकारों को इकट्ठा कर संकलन प्रकाशित किये जाएं तो इस दिशा में एक अच्छा प्रयास होगा एवं तेवरी हिन्दी काव्य की मान्य विधा के रूप में स्थापित हो सकेगी।
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विश्वप्रताप भारती, बरला,अलीगढ़ [ उ.प्र.]-202129

मोबा. 8445193301

Friday, June 24, 2016

“ रमेशराज के चर्चित तेवरी संग्रह “ +अशोक अंजुम




अनेक तेवरी-संग्रहों का एक ही पुस्तकाकार रूप-
 “ रमेशराज के चर्चित तेवरी संग्रह “

+अशोक अंजुम
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   सार्थक सृजन प्रकाशन, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़ से प्रकाशित पुस्तक “ रमेशराज के चर्चित तेवरी संग्रह “ में तेवरी की स्थापना में प्राण-प्रण से जुटे तेवरीकार श्री रमेशराज ने अनेक तेवरी संग्रहों को एक ही स्थान पर पुस्तकाकार परोसा है |
   ‘ सिस्टम में बदलाव ला ‘ के अंतर्गत जहाँ जनकछंद में 19 तेवरियाँ हैं, वहीं ‘ घड़ा पाप का भर रहा ’ तथा ‘ धन का मद गदगद करे ’, ‘रावण कुल के लोग ’, ‘ककड़ी के चोरों को फांसी ‘, ‘ दे लंका में आग ‘, लम्बी तेरी [तेवर-शतक ] हैं | ‘ होगा वक्त दबंग ‘ के अंतर्गत नवछ्न्दों में तेवरियाँ हैं | ‘ आग जरूरी ‘, ‘ मोहन भोग खलों को ‘, ‘ आग कैसी लगी ‘, बाजों के पंख कतर रसिया ‘ आदि संग्रहों में अनेक छंदों के साथ-साथ हाइकु छंद का भी प्रयोग है | ‘ मन के घाव नये न ये ‘ में यमकदार तेवरियाँ हैं, देखें-
       इज्जत यूं उतार, तू मजदूर-गरीब की
       रोजनामचा मत दिखा, रोज ना मचा रार |
   पुस्तक की विस्तृत भूमिका ‘ तेवरी इसलिए तेवरी है ‘ के अंतर्गत श्री रमेशराज ने तेवरी के विरोधियों के उपहासों व सवालों का बड़ी बेबाकी से तार्किक समाधान दिया है |
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अभिनव प्रयास, जनवरी-मार्च 2016, पृष्ठ-33  

मौलिक चिंतनपरक शोधकृति “ विरोधरस “ डॉ. राम सनेही लाल ‘ यायावर ’




मौलिक चिंतनपरक शोधकृति “ विरोधरस “

डॉ. राम सनेही लाल ‘ यायावर ’ 
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श्री रमेशराज मौलिक चिंतक और समकालीन यथार्थबोधी चेतना के कवि हैं | उनके पास कारयित्री और भावयित्री दोनों प्रकार की प्रतिभाओं का अकूत भंडार है | हिंदी-ग़ज़ल के सत्ता-विरोधी, यथार्थबोधी , उग्र और आक्रामक स्वरूप को वे तेवरी कहते हैं | वर्षों से ‘ तेवरी-पक्ष ‘ पत्रिका के माध्यम से वे तेवरी को रचनात्मक और शास्त्रीय स्तर पर स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं | समकालीन काव्य की सभी विधाएं – गीत, नवगीत,  मुक्तछंद, दोहा, हाइकु आदि सभी में यथार्थ का उग्र रूप देखने को मिल रहा है | इसीलिये उनके द्वारा स्थापित “ विरोधरस ” एक सार्थकता को ग्रहण करता प्रतीत होता है |     
    पुस्तक-“ विरोधरस ”- ‘विरोधरस के आलम्बन विभाव’, ‘आलम्बन के अनुभाव’, ‘विरोधरस के अन्य आलम्बन’, ‘विरोधरस के आलम्बनगत संचारी भाव’, ‘विरोधरस के आश्रयगत संचारी भाव’, विरोधरस का स्थायी भाव आक्रोश, विरोधरस की पहचान, विरोधरस की निष्पत्ति, विरोधरस की पूर्ण परिपक्व अवस्था, विरोधरस के रूप, विरोधरस के प्रकार तथा निष्कर्ष आदि अध्यायों में विभक्त है | लेखक ने इन अध्यायों में विषय का शास्त्रीय विवेचन करते हुए “ विरोधरस ” को पूर्ण शास्त्रीयता प्रदान करने की चेष्टा की है | लेखक के अनुसार-
 “ विरोधरस का स्थायी भाव “आक्रोश ” है | “आक्रोश” ऊपर से भले ही शोक जैसा लगता है क्योंकि दुःख का समावेश दोनों में समान रूप से है | लेकिन किसी प्रेमी से विछोह या प्रिय की हानि या उसकी मृत्यु पर जो आघात पहुँचता है, उस आघात की वेदना नितांत वैयक्तिक होने के कारण शोक को उत्पन्न करती है जो करुणा में उद्बोधित होती है | जबकि आक्रोश को उत्पन्न करने वाले कारक न तो अप्रत्यक्ष होते हैं और न मित्रवत | किसी कुपात्र का जान-बूझ कर अप्रिय या कटु व्यवहार जो मानसिक आघात देता है इस आघात से ही ‘ आक्रोश ‘ का जन्म होता है | धूर्त्त की छल, धूर्त्तता, मक्कारी और अहंकारपूर्ण गर्वोक्तियाँ सज्जन को ‘ आक्रोश ‘ से सिक्त करती हैं |”
    लेखक का मानना है कि-“ कविता का जन्म ‘आक्रोश‘ से हुआ है और यदि काव्य का कोई आदिरस है तो वह है ‘ विरोध ’ |”
    ‘ तेवरी ‘ के लिए उन्होंने ‘ विरोधरस ‘ को अनिवार्य माना है और आलम्बनविभाव के रूप में सूदखोर, भ्रष्ट नौकरशाह, भ्रष्ट पुलिस, नेता तथा साम्प्रदायिक तत्त्व को स्वीकार किया है | उद्दीपन विभाव के रूप में वे दुष्टों की दुष्टता, नेताओं की क्रूरता, मीडिया का भ्रष्ट स्वरूप आदि को स्वीकारते हैं | ‘विरोधरस ‘ आश्रयगत संचारी भावों में दुःख, दैन्य, याचना, शंका, विषाद, संताप, आवेग, भय और साहस आदि को मान्यता प्रदान करते हैं | आश्रय के अनुभावों के रूप में उन्होंने – अपशब्द बोलना, तड़पना, मुट्ठियों को भींचना, भयग्रस्त हो जाना, आँखों से रंगीन  सपनों का मर जाना, सिसकियाँ भरना, चट्टान जैसा सख्त हो जाना, सुबकना, थर-थर कांपना, विक्षिप्त-सा हो जाना, आग-सा दहक उठना, कृशकाय हो जाना, कलेजा मुंह तक आना, आशंका व्यक्त करना, त्रासद परिस्थितियों की चर्चा करना, निरंतर चिंताग्रस्त रहना आदि को मान्यता देते हैं|
       ‘ विरोधरस ‘ का अन्य रसों से भी उन्होंने पार्थक्य दिखाया है | उदाहरणार्थ-करुणरस से विरोधरस को अलग करते हुए श्री राज कहते हैं-“ स्थायी भाव शोक करुणरस में उद्बोधित होता है जबकि विरोधरस के अंतर्गत स्थायी भाव शोक संचारी भाव की तरह उपस्थित होते हुए आक्रोश में घनीभूत होता है और स्थायी भाव बन जाता है | जो विरोधरस के माध्यम से अनुभावित होता है | “
    विरोधरस के ‘ रूप ’ व ‘ प्रकार ‘ अध्याय में लेखक ने विरोध के ‘ रूप ‘ – अभिधात्मक विरोध, लक्षणात्मक विरोध, व्यंजनात्मक विरोध, व्यंग्यात्मक विरोध, प्रतीकात्मक विरोध, भावनात्मक विरोध, वैचारिक विरोध, चिन्तनात्मक विरोध, तीव्र विरोध, विश्लेष्णात्मक विरोध, क्षुब्धात्मक विरोध, रचनात्मक विरोध, खंडनात्मक विरोध,   परिवर्तनात्मक विरोध, उपदेशात्मक विरोध, रागात्मक विरोध, संशयात्मक विरोध, एकात्मक विरोध तथा सामूहिक विरोध इन 19 रूपों को स्वीकार किया है | तथा विरोध के ‘ प्रकार ‘ के रूप में –स्व विरोध, पर-विरोध, व्यक्ति-विशेष-विरोध, चारित्रिक विरोध, अहंकार विरोध, विडम्बना विरोध, साम्प्रदायिकता विरोध, छद्मता विरोध, आतंकवाद का विरोध, असह्य परिस्थिति विरोध, परम्परा विरोध, छल-विरोध, विघटन विरोध, समाधानात्मक विरोध, व्यवस्था विरोध को मान्यता दी है |
    कुल मिलाकर लेखक ने सपुष्ट तर्कों से सम्बलित मौलिक चिन्तन के द्वारा अपने पक्ष को पुष्ट करने का प्रयास किया है | निसंदेह श्री रमेशराज के तर्क मौलिक व प्रभावी हैं | दृष्टि शास्त्रीय है और तार्किकता अकाट्य है | परन्तु तमाम विवेचन के उपरांत रस का मूल-तत्त्व      ‘ आनन्द ‘ विरोध से तिरोहित है | मेरा विश्वास है कि यह शास्त्रीय कृति कवि और लेखकों को एक नयी दिशा देगी  तथा साहित्य-जगत में विचारोत्तेजक बहस का मार्ग प्रशस्त करेगी | पुस्तक गम्भीर काव्य-शास्त्रीय पाठकों के लिए सर्वतोभाविक पठनीय व संग्रहनीय है |

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विरोध की कविता : “ जै कन्हैयालाल की “ [ प्रथम संस्करण ] + डॉ. ब्रह्मजीत गौतम

विरोध की कविता : “ जै कन्हैयालाल की “
[ प्रथम संस्करण ]

+ डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
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   ‘ तेवरी ‘ विधा के प्रणेता, कथित विरोधरस के जन्मदाता श्री रमेशराज की लघु कृति ‘ जै कन्हैयालाल की ‘ आज के समाज और समय की विसंगतियों और विद्रूपों का जीवंत दस्तावेज़ है | 105 द्विपदियों से समन्वित इस कृति को कवि ने ‘ लम्बी तेवरी ‘ नाम दिया है | प्रत्येक द्विपदी में एक प्रथक भाव या तेवर है, अतः कवि ने इसे ‘ तेवर-शतक ‘ भी कहा है | वस्तुतः ‘ जै कन्हैयालाल की ‘ एक प्रकार का उपालम्ब काव्य है, जिसमें कवि ने जनता रुपी गोपियों की आवाज़ उसके द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों रुपी उद्धव के माध्यम से हर उस शासक तक पहुँचाने का प्रयास किया है जो वेशभूषा से तो कृष्ण जैसा लगता है, किन्तु आचरण से कंस जैसा होता है | ‘ मनमोहन ‘ शब्द का साभिप्राय प्रयोग कर, परिकरान्कुर और श्लेष अलंकार से गुम्फित 101 वीं द्विपदी देखिये, जो काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से तो उत्कृष्ट है ही, कृति के उद्देश्य को भी बड़े कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है-
        ऊधौ मनमोहन से बोल देना राम-राम
        बैठे कान रुई डाल,  जै कन्हैयालाल की  |
    कृति की द्विपदियां हमारे सामने समाज में व्याप्त शोषण, अत्याचार, कंगाली, भ्रष्टाचार, हिंसा, हड़ताल, महंगाई, आदि व्याधियों के दृश्य उपस्थित करती हैं | आज स्थिति यह है कि प्रतिभा-सम्पन्न लोग तो ठोकरें खाते फिरते हैं, किन्तु नक्काल मौज मनाते देखे जा सकते हैं | जनता को तो रोटी-दाल तक नसीब नहीं है, किन्तु नेताजी हर रोज तर माल हज़म कर जाते हैं | विश्वबैंक से कर्ज ले-लेकर देश को निहाल कर रहे हैं | सत्य को कब्र में दफ़नाया जा रहा है और झूठ नंगा नाच कर रहा है |
    जहाँ कहीं कवि ने प्रतीकों का सहारा लेकर बात कही है, उसकी व्यंजकता कई गुना बढ़ गयी है | ऐसे कुछ तेवरों पर दृष्टिपात करना उचित होगा-
       
        ‘ विकरम ‘ मौन औ सवाल ही सवाल हैं
        डाल-डाल ‘ वैताल ‘, जै कन्हैयालाल की |
आज़ादी के नाम पे बहेलियों के हाथ में
        पंछियों की देख-भाल, जै कन्हैयालाल की |  
        जहाँ-जहाँ जल-बीच नाचतीं मछलियाँ
        छोड़ दिये घड़ियाल, जै कन्हैयालाल की |
    कवि का कटाक्ष है कि नेताओं को यदि त्रिभुज बनाना हो तो वे परकार को हाथ में लेते हैं | घोड़े तो धूप-ताप सहते हैं किन्तु गदहों के लिए घुड़साल खुली हुयी हैं | यहाँ ‘ फूट डालो राज करो ‘ की नीति अपनायी जाती है | पांच साल बाद जब चुनाव आते हैं तो नेताजी बड़े दयालु हो जाते हैं | अंत में कवि विवस होकर भविष्यवाणी करता है-
        ऊधौ सुनो भय-भरे आपके निजाम का
        कल होगा इंतकाल, जै कन्हैयालाल की |
    104 वीं द्विपदी से सूचित होता है कि कवि ने यह लम्बी तेवरी वर्णिक छंद में रची है –
        तेवरी विरोध-भरी वर्णिक छंद में
        क्रांति की लिए मशाल, जै कन्हैयालाल की |
    किन्तु यह कौन-सा वर्णिक छंद है, इसका उल्लेख नहीं किया है | फलस्वरूप शुद्धता की जांच नहीं की जा सकती है | छंद शास्त्र सम्बन्धी पुस्तकों के अवलोकन से विदित होता है कि इस छंद की लय चामर अथवा कुञ्ज से मिलती है | किन्तु ये दोनों छंद गणात्मक हैं | ‘ जै कन्हैयालाल की ‘ की अधिकांश द्विपदियाँ  गणात्मक न होने के कारण दोषपूर्ण हैं | इनमें कोई एक क्रम नहीं है | कहीं पंक्ति में 14 तो कहीं 15 अथवा 16 वर्ण हैं |  इसी प्रकार ‘ आदमी का सद्भाव कातिलों के बीच में ‘ के अंतर्गत ‘ बीच ‘ के आगे ‘ में ‘ का प्रयोग भर्ती का है | ‘ बीच ‘ शब्द के अंतर्गत ‘ में ‘ का भाव पहले से ही निहित है |
    प्रकटतः इस तेवरी में ग़ज़ल का रचना-विधान दिखायी देता है | कवि की पत्रिका ‘ तेवरी-पक्ष ‘ में प्रकाशित तेवरियाँ भी सामान्यतः ग़ज़ल-फार्मेट में ही होती हैं | मतला, मक़ता, बहर, काफ़िया, रदीफ़, सबकुछ ग़ज़ल जैसा | किन्तु श्री रमेशराज उन्हें ग़ज़ल नहीं मानते | क्योंकि ग़ज़ल तो वह है जिसमें आशिक-माशूका के बीच प्यार-मुहब्बत की गुफ्तगू हो | ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ यही है | यदि श्री राज की इस मान्यता के अनुसार चलें तो आज दोहा, गीत, मुक्तक, आदि सभी कविताएँ तेवरी कही जानी चाहिए, क्योंकि उनमें भी जीवन के खुरदरे सत्य की चर्चा है | आज का नवगीत तो पूर्णतः अन्याय, अत्याचार, शोषण और राजनीतिक कुटिलता के विरुद्ध आवाज़ उठाता है | अतः वह भी तेवरी हुआ | समय के साथ-साथ आदमी का स्वभाव, पहनावा और आदतें बदल जातीं हैं, किन्तु उनका नाम वही रहता है | ‘ तेल ‘ शब्द का प्रयोग किसी समय मात्र तिल से निकलने वाले द्रव के लिए होता था, किन्तु आज वह सरसों , लाहा, मूंगफली, बिनौला, यहाँ तक कि मिट्टी के तेल के लिए भी प्रयुक्त होता है | ‘ मृगया ‘ शब्द का प्रयोग भी कभी केवल हिरन के शिकार के लिए होता था, किन्तु कालान्तर में वह सब प्रकार के पशुओं के लिए होने लगा | तो आज यदि समय के बदलाव के साथ ग़ज़ल का कथ्य बदल गया है तो वह ‘ ग़ज़ल ’ क्यों नहीं कही जानी चाहिए | अंततः कविता की कोई भी विधा अपने समय के अनुगायन ही तो करती है, अन्यथा उसकी प्रासंगिकता ही क्या रहेगी |
    अस्तु, इस बात से विशेष अंतर नहीं पड़ता कि ‘ जै कन्हैयालाल की ‘ रचना एक लम्बी तेवरी है या लम्बी ग़ज़ल | मूल बात यह है कि यह समाजोपयोगी है और शिवेतरक्षतये के उद्देश्य की पूर्ति करती है | छान्दसिक अनुशासन की कतिपय शिथिलताओं के बावजूद यह पाठक की चेतना पर पर्याप्त सकारात्मक प्रभाव छोड़ती है | साहित्य जगत में इसे पर्याप्त स्थान मिलेगा, यह विश्वास न करने का कोई कारण नहीं है |
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डॉ. ब्रह्मजीत गौतम, युक्का-206, पैरामाउन्ट, सिंफनी, क्रोसिंग रिपब्लिक, गाजियाबाद-201016  moba.- 9760007838 

Saturday, June 11, 2016

“ऊधौ कहियो जाय“ तेवरी-शतक में विरोधरस का प्रवाह +डॉ. अभिनेष शर्मा




“ऊधौ कहियो जाय“ तेवरी-शतक में विरोधरस का प्रवाह

+डॉ. अभिनेष शर्मा 
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   गोपियों को आमजन का प्रतिनिधि और उद्धव को कृष्णरूप में गद्दी पर बैठे कंस जैसे हर शासक का संदेशवाहक मानकर पुराने प्रसंग को नये सन्दर्भों में पिरोकर रची गयी तेवरीकार रमेशराज नयी कृति “ऊधौ कहियो जाय“ तेवरी-शतक में पाठकों के समक्ष है |
    शतकों की परम्परा में प्रस्तुत यह तेवरी-शतक पठनीय ही नहीं, इस कारण भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उद्धव जो कृष्ण के दूत बनकर गोपियों के समक्ष आते हैं तो गोपियाँ उनसे कोई विरह या प्रेम-प्रसंग नहीं रखतीं बल्कि उनकी पीड़ा तो उस सिस्टम की बखिया उधेड़ती है जो जाने-अनजाने आमजन का सुख-चैन लीलने को आतुर है |
    लोकतंत्र में अव्यवस्था-अनीति का विरोध करने का अधिकार हर व्यक्ति को मिला हुआ है | जनता भले ही दरिद्र और असहाय हो किन्तु आक्रोश से युक्त उसके पास नुकीले तीरों के भंडार हैं | इन्हीं नुकीले तीरों का इस्तेमाल करते हुए वे उद्धव से कहती हैं –
    हम तो रहें उदास पर कैसे हैं घनश्याम
    यहाँ भूख का वास पर कैसे हैं घनश्याम, बैठ गद्दी पर खुश हैं ?
राजा कभी इतना कष्ट नहीं उठाता कि जनता के दुःख-दर्दों का आकलन खुद जनता के बीच आकर करे | इस कार्य के लिए वह जनता के बीच केवल अपने प्रतिनिधि को भेजता है | राजा की इस असम्वेदनशीलता से जनता भी अपरिचित नहीं | तभी तो वह उद्धव के समक्ष इस सत्य को उजागर करती है-
    जनपथ तक आये नहीं राजपथों के लोग
    है हमको आभास पर कैसे हैं घनश्याम, बैठ गद्दी पर खुश हैं ?
जनता द्वारा प्रिय नेता के रूप में चुने सांसद, विधायक के मंत्री बन जाने पर उसी जनता पर अत्याचार और वार करने की नीति जगजाहिर है | ऐसे कुशासकों से पीड़ित व्यथित गोपियों के रूप में जनता का उद्धव को दर्ज कराया गया बयान, जन-दमन का जीवंत व्याख्यान बन जाता है –
    इस शोषण की मार से कब होंगे आज़ाद
    ऊधौ अत्याचार से कब होंगे आजाद, कटेगा कैसे जीवन ?
उद्धव जब गोपियों को अपनी सरकार की छद्म उपलब्धियों का बखान करने लगते हैं तो गोपियाँ आक्रोशित होकर समवेत स्वर में सरकारी नीति का विरोध करती हैं-
    राजनीति के आज हो तुम तो एक दलाल
    कोरी देना सांत्वना ऊधौ जानो खूब, बड़े छलिया हो ऊधौ !
तेवरीकार रमेशराज की इस शतकीय रचना में नूतन रचनाधर्मिता के सभी काव्यात्मक कौशलयुक्त गुण मौजूद हैं | विरोधरस का पूर्ण प्रवाह है | इसी रस में कथन का अनूठा, सारगर्भित अनुपम अर्थ-विस्तार है | भावनाओं का आक्रोशमय मुखर ज्वार है | तेवरी-शतक का हर तेवर व्यंग्य से भरा है |
    पुस्तक में जनकछंद, हाइकु, वर्णिकछंद, सर्पकुण्डली राज छंद और दुमदार दोहों के साथ प्रयुक्त हुए तेवर इस तथ्य को स्पष्ट रूप से उजागर करते है कि तेवरीकार की हर छंद पर पकड़ मजबूत है | संग्रह में विज्ञान के प्रतीकों का सहारा लेकर रची गयीं तेवरियाँ मौलिक कहन के कारण अन्य सामान्य रचनाकारों से रमेशराज को अलग खड़ा करती हैं | यथा-
    अंकगणित-सी जिंदगी बीजगणित-सा प्यार
    मन के भीतर सैकड़ों प्रश्नों की बौछार, हार ही लिखी भाग में |
अथवा-
हम ‘बॉयल’ के नियम से झेल रहे हैं दाब
    दुःख में सुख का आयतन घट जाता हर बार |
इस तेवरी-शतक में  उद्धव रुपी सत्ता के दलाल की पूरी बात आमजन की प्रतीक गोपियाँ पूरे धैर्य से सुनती हैं और अपनी ओर से यथासम्भव उत्तर भी देती हैं | किन्तु सत्ताई-सोच में किंचित परिवर्तन न देख अंततः यही कह कर संतोष करती दिखलायी देती हैं-
इन प्राणों के रोज, लेता चुम्बन दर्द अब
आलिंगन हैं शेष, ऊधौ हम किससे कहें ?
तेवरियों में की मुखर एक शतक की पीर                                  
अभी कथन  हैं शेष, ऊधौ हम किससे कहें ?
     अस्तु ! आशा है एक नये तेवरी संग्रह में इन शेष कथनों को पुनः अभिव्यक्ति मिलेगी |
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डॉ.अभिनेष शर्मा, देव हॉस्पिटल, खिरनी गेट , अलीगढ़
मोबा.-9837503132  

    

Monday, June 6, 2016

हिंदी काव्य जगत की अनूठी घटना +डॉ. हरिसिंह पाल





“घड़ा पाप का भर रहा ” [ लम्बी तेवरी-तेवर शतक ] हिंदी काव्य जगत की अनूठी घटना 

+डॉ. हरिसिंह पाल 
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    “घड़ा पाप का भर रहा ” नामक काव्य कृति तेवरी काव्य विधा को समर्पित कथ्य और शिल्प की दृष्टि से पठनीय कृति है | रमेशराज ने तेवरी विधा को प्रतिष्ठापित करने में जो सक्रिय भूमिका निभाई है वह सराहनीय है | आप मेरे गृह जनपद अलीगढ़ में रहकर साहित्य की सेवा कर रहे हैं , यह मेरे लिए आत्मीयता से परिपूर्ण तथ्य है , दूसरे आप और हम लगभग समवयस्क भी हैं | आपकी साहित्यिक उपलब्धियां आकर्षित करती हैं |
    “घड़ा पाप का भर रहा ” कृति की लम्बी तेवरी मन को छूती है इसके लिए रमेशराज विशेष बधाई के पात्र हैं | “मौत न हो ” विषय को लेकर आपने “तेवर शतक ” की रचना कर दी , यह हिंदी काव्य जगत की अनूठी घटना है | आपकी ये पंक्तियाँ तो तेवरी को ही व्याख्यायित कर देती हैं ....
शब्द शब्द से और कर व्यंग्यों की बौछार
यही कामना तेवरियों में अभिव्यंजन की मौत न हो |
साथ ही अपने ग़ज़ल और तेवरी का सीमांकन कर नयी दिशा दी है ....
आलिंगन के जोश को कह मत तू आक्रोश
ग़ज़लें लिख पर कथ्य काफ़िया और वज़न की मौत न हो |
   तेवरीकार श्री रमेशराज द्वारा रचित तेवरी संग्रह “ घड़ा पाप का भर रहा ” की तेवरियों में भाव की प्रवहमन्यता के आगे भाषा की दीवार भरभराकर गिर पड़ी है | हिंदी के तत्सम तद्भव और देशज शब्दों के साथ-साथ आंग्ल और अन्य विदेशी ( अरबी, फारसी, पुर्तगाली आदि ) के भी शब्द बेरोकटोक बहते चले आये हैं | यथा टाई पेंट, सूट | जहाँ अंग्रेजी के शब्द गारंटी, डिस्कोक्लब, शर्ट, ऑनरकिलिंग , सिस्टम , कमेटी  आदि प्रयुक्त  हुए हैं वहीं उर्दू के रहबर, दलाल, जुआ, यार , दावपेंच, शाद, रौशनी, जोश, काफिया, खाक , आफत , खिलवाड़ , बर्बर , फतह , जंजीर , तंगजहन आदि शब्दों के साथ साथ नये-नये शब्द अपनी ओर से गढ़कर तेवरीकार ने  तेवरी की आत्मा में  जगह बनाये रखने में सफलता पायी  है तथा नव चटकन , नव चिन्तन , वलयन, हिंदीपन , किलकन , घुटुअन , काव्यायन, शब्दवमन, आयन , जैसे शब्दों का प्रयोग निस्संदेह शब्दसाधना का ही सुपरिणाम है |
   “ घड़ा पाप का भर रहा ” तेवरी संग्रह की लम्बी तेवरी के अंत
में सर्प कुण्डली राज छंद में तेवरी प्रस्तुत कर श्री रमेशराज ने एक अभिनव प्रयोग किया है जो पूर्णतया सफल है |हिंदी का ‘सिंहावलोकन’ छंद भी लगभग इसी प्रकार का है | ‘सिंहावलोकन’ में जहाँ काव्यपंक्ति का अंतिम काव्यांश अगली काव्य पंक्ति का अंश बनता है वहीं सर्प कुण्डली में काव्यपंक्ति का अंतिम काव्यांश या अर्धाली अगली पंक्ति को बनाती है | अस्तु एक ही पुस्तकनुमा कृति में काव्य के दो दो छंदों से सहज ही परिचय हो जाता है |
  श्री रमेशराज की पत्रिका ‘तेवरीपक्ष ’ मन को आनन्द प्रदान करती है | तेवरी साहित्य यात्रा अनवरत जारी रहे , यही वाग्देवी से प्रार्थना है 
      " घड़ा पाप का भर रहा " तेवरी कर श्री रमेश राज जी का लाजबाब तेवरी शतक है | इसमें हिन्दी छंद का प्रयोगधर्मी स्वरुप आपको देखने को मिलता है | इस शतक के प्रत्येक तेवर की पहली पंक्ति दोहे की अर्धाली ( 13 , 11 पर यति ) व् दूसरी पंक्ति चौपाई छंद ( 16 मात्राएँ पर यति , व् 14 मात्राएं पर विराम लिए हुए हैं )| इस शतक का एक एक तेवर तलवार की धर से भी अधिक पैना है | इस शतक के तेवर एक ओर जहाँ कुव्यवस्था पर वार करते हैं वहीं दूसरी ओर सुव्यवस्था की राह भी सूझाते हैं | "हाथ उठा सबने किया , अत्याचार विरोध | जड़ने के संकल्प न टूटें, अनुमोदन की मौत न हो " इतना ही नहीं भोली भाली जनता को आगाह करते हुए कहते हैं कि - "ये बाघों का देश है , जन जन मृग का रूप | अब तो चौकस रहना सीखो , किसी हिरन की मौत न हो |" इतना ही नहीं आगे जनता को समझाते हुए कहते हैं कि "संसद तक भेजो उसे जो जाने जन -पीर | नेता के लालच के चलते , और वतन की मौत न हो " |
    आदरणीय  रमेशराज जी लम्बी तेवरी-तेवर शतक “घड़ा पाप का भर रहा ” की जितनी तारीफ की जाए उतनी ही कम है | रमेश जी गागर में सागर भर दिया है | जनमानस के सरोकारों को मुखरित करने के लिए रमेशजी की रचना धर्मिता प्रसंशनीय है | तेवरी विधा में यह शतक हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर साबित होगा | रमेश जी को एवं उनकी लेखनी को हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएं |
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+डॉ. हरिसिंह पाल , प्रसारक – आकाशवाणी , दिल्ली
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